डगर शूल से पटी पड़ी है, चक्कर पर चक्कर हैं
जीना दुष्कर है नैनों में, आँसू के सागर हैं
मर्यादाएँ मरीं हुईं सब, अनाचार है जागा
दिखने में जो हंस यहाँ पर, वही असल में कागा
शील हरण करते निर्लज्जे, बदल लिए तेवर हैं
जीना दुष्कर है नैनों में, आँसू के सागर हैं
कदम-कदम पर घात लगाए, बैठे कुटिल शिकारी
बाज दृष्टि से बचना मुश्किल, काँपे खड़ी दुलारी
जीवन नैया डगमग डोले, घेरे विकट भँवर हैं
जीना दुष्कर है नैनों में, आँसू के सागर हैं
हुआ प्रेम है अब अभिशापित, परिभाषाएँ बदलीं
भोग-वासना की इच्छाएँ निठुर निरंकुश मचलीं
सुख की कोरी बनी कल्पना, काँटों के बिस्तर हैं
जीना दुष्कर है नैनों में, आँसू के सागर हैं
आशाओं के वृक्ष ठूँठ हैं, जला रही दोपहरी
मरे हुए अहसास सभी के, राजनीति भी बहरी
मगरमच्छ आँसू छलकाते, बनते आज विनर हैं
जीना दुष्कर है नैनों में, आँसू के सागर हैं
– स्नेहलता नीर