चलो अब अपने गाँव चलते हैं
शहर के इस चकाचौंध से बहुत दूर
गांव के उन पगडंडियों पर टहलते हैं
छोड़ देते हैं ये ऑफिस की मारा-मारी
फिर उसी बरगद के नीचे खेलते हैं
चलो अब अपने गाँव चलते हैं
बहुत याद आता है, बहुत याद आता है
वो माँ के हाथ का बना खाना
वो छोटी बहन का प्यार से बुलाना
चलो फिर दादी माँ की लोरियां सुनते हैं
चलो अब अपने गाँव चलते हैं
मेरे ज़ेहन में जिंदा अब भी है
वो चौराहे पर देर शाम तक की बैठकें
वो सबका मिलजुल कर रहना
यहां तो सब किसी ना किसी से जलते हैं
चलो अब अपने गाँव चलते हैं
फंसी पड़ी है जिंदगी सड़कों के ट्रैफिक जाम में
रोज मर रहे हम यहां जीने के इंतजाम में
चलो फिर उसी बगीचे में जहां हम सब का
बचपन गुजरा, वहीं कुछ उछल कूद करते हैं
चलो अब अपने गाँव चलते हैं
ऊबन सी होने लगी है ऊंची इमारतों से
इश्क़ जैसा हो रहा गांव की कहावतों से
चलो छोड़ के इन एसी वाले कमरों को
अब कच्चे मकानों में कुछ दिन रहते हैं
चलो अब अपने गाँव चलते हैं
-सत्यम राय ‘आनन्द’