जग में निराली थी माँ- वीरेन्द्र तोमर

नन्हा  था  जब
तब खिलाती  थी माँ
मेरी  प्यारी  सी माँ
जग में निराली थी माँ

पैरो  पे   चला
कभी  गोदी  उठा
खुद  भुखी  रहे  पर
खिलाती  थी  माँ

जब  पढ़ने  लगा
स्कूल  जाने  लगा
स्वयं जल्दी  उठकर वो
तब जगाती  थी  माँ

धूल  मिट्टी  सने
कपड़े  लाता  था मैं
साफ  पानी  से  मुझे
नहलाती  थी  माँ

छींक  आने  लगे
बेचैन  होती  थी वो
लाके  औषधि  मुझे
पिलाती  थी माँ

जब बचपन  गया
मैं  बढा  हो  गया
सही  मार्ग  चुनना
सिखाती  थी  माँ

 हुई  शादी  मेरी
खुसी  उसको  हुई
बहू  बेटी  समझ  कर
रखती  थी माँ

मैं  बाहर  चला
काम  की  खोज  में
शीघ्र  वापसी की
कसम  खिलाती  थी माँ

ज़रा  देरी  हुई ,
यदि लौटने  में  मेरे ,
वो राहों  में  जा
बात  सबको बताती  थी माँ

जब  वो बूढ़ी  हुई
शरीर  थक सा  गया
पास  मुझको बुला
चाबी  उसने दी  थमा

उम्र  पुरी  हुई
छोड़  जाने  लगी
राह  सच्ची  चलो
सिखाई  थी माँ

-वीरेन्द्र तोमर