कभी लहरों की अंगडाई से,
किनारे टूट जाते हैं,
कभी ज्यादा कसीदों से,
रिस्ते छूट ज़ाते हैं
कहीं घनघोर वारिस से,
दरिया उभान भरती है,
कहीं झूठी कहानी से,
नाते छूट जाते हैं
कभी किस्ती किनारे पर,
पहूचते ड़ूब जाती हैं,
कहीं जग जीत कर भी,
घर पे हार जाते हैं
कही इत्र के छुने से ,
कागज के फुल महके हैं,
कहीं बोली से मरते हैं,
तो गोली ही फेल होती हैं
ऊतरते बादल धरती पे,
हमने खूब देखा है,
पर फरिस्ते आज दुनियां में,
शायद ऊतरते देखे हैं
निकलते हीरों को पत्थर से,
सबने खूब देखा है,
कहीं हीरे को पत्थर ही ,
य़हीं कुछ लोग समझते हैं
जब तलख है जेब में गर्मी,
पराये भी साथ होते हैं
पर जेब हो गई अगर खाली,
अपने ही मुंह मोड लेते हैं
न कर इतवार रिस्तो पर,
जो बुनियादी झूठ होते हैं,
ना छोडो हाथ तुम उनका,
जो रिस्ते नि:स्वार्थ होते हैं
करना मदद सदा उनकी,
मदद के जो भी काबिल हों,
ना आना पय के धोखे में,
घडे भीतर भरे बिष से हैं
-वीरेन्द्र तोमर