हम कमजोर भले दिन से हैं, फिर भी हम डट कर लिखते हैं
पहले हाँ रो लेते हैं फिर अश्क़ों को पीकर लिखते हैं
ये अश्क़ आँखों की अमानत ही नहीं कलम की स्याही भी है
इन्हीं अश्क़ों की बूँदों से अहसास का अक्षर-अक्षर लिखते हैं
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अपनी पीठ के घावों पे खुद मरहम लगाना मुश्किल है
सबसे कटकर, तन्हा-तन्हा रहकर दर्द भुलाना मुश्किल है
कलेजा मुंह को आता है ऐ यार तुम्हारी महफ़िल में
रो-रो के गीत लिखे, हँस-हँस कर सुनाना मुश्किल है
– रूचि शाही