आज कैसे कसक रही है, तड़प रही है दिल्ली
कभी यहाँ से कभी वहाँ से सुलग रही है दिल्ली
अमन चैन खो रहा दिलों से, साँसें बैचेन हुई,
नफरत घुली हवाओं में, विलग रही है दिल्ली
दहशत गर्दों ने गलियों में खूब तमंचे ताने,
आवारा लोगों के सदमे से सुलग रही है दिल्ली
कौन किस को मार रहा है, कौन बचाये किस को,
भाई-भाई को रुला रहा, बिलख रही है दिल्ली
दंगे फैलाने वालों का कोई भी ईमान नहीं होता,
हिंदू-मुस्लिम को एक नजर से, देख रही है दिल्ली
लहु बह रहा सड़कों पर, एक रंग सभी का,
कोई भेद नहीं, क्यों फिर कत्ल हो रही है दिल्ली?
किसी को फुरसत नहीं यहाँ गले मिलने की,
फिर कैसे सड़कों पे लड़ने को निकल रही है दिल्ली
कभी किसी का घर जला, कभी जलाते वाहन,
इन उत्पाती, उन्मादों के कारण सजल रही है दिल्ली
इस उन्मादी भीड़ में, कोई नहीं सुने दिल वालों की,
दिलवाले व्यवहार नहीं, इनसे बेकल रही है दिल्ली
नहीं एकता टूटने वाली, इन ओछे इंसानों से,
तोड़ने वाले टूट गये, सदा अटल रही है दिल्ली
-आशा दिनकर
नयी दिल्ली