मैं देखता हूँ रोज
दफन होता एक बच्चा
मैं देखता हूँ रोज
टुकड़े-टुकड़े मरता एक बच्चा,
पीठ पर वजनी बस्ता लटकाए
स्कूल जाते, स्कूल से लौटते
बोझ से कंधे-सिर झुकाए
ट्यूशन जाते, ट्यूशन से लौटते,
घर-समाज से
किताबें चाटते रहने की हिदायतें पाते
टीवी देखते परिवार से
टीवी से दूर रहने का आदेश पाते,
रोजाना की डबल शिफ्ट से जान छुड़ाते
शिफ्टों में खेलने-कूदने के क्षण चुराते
रास्ते की टूटी बेंच पर बैठकर
खत्म होते बचपन को निहारते,
सुबह से रात, रात से सुबह
बस्ता पीठ से नहीं हटता
भरसक कोशिश करता
दफन होना नहीं रुकता,
क्या कहा-
आपने नहीं देखा?
सनद रहे-
हर नेत्रपटल
दृश्य तो बनाता है
संवेदना की झिल्ली न हो
तो आदमी देख नहीं पाता है।
-संजय भारद्वाज