रिश्तों को जीते हुये हम
आँखों की पुतलियों में जीते हैं कई भाव
और तय होती हैं
हर भाव की एक निश्चित परिधि
कि तभी बीज बन उतर जाता है एक रिश्ता
मन की जमीन पर
जो एक दिन बन जाता है वट वृक्ष
जिसकी जड़ों में होती हैं असंख्य शाखाएं
रिझाने,मनाने, सताने, रुलाने, की
और विश्वास की टहनियों पर
खिलखिलाती हैं खुशियों की पत्तियां
गुजरते पलों के साथ
निकल आती है अनुकूलन की जटायें
कि दोस्त सहस्र मील दूर होकर भी
नही छोड़ते हैं साथ
वो घूमते रहते हैं सूरजमुखी की तरह
कि दोस्ती होती भी तो है सूरज जैसी प्रदीप्तिमान
दोस्त, कभी नही बन पाते है नदी
कि वो चाह कर भी न लौट सके पहाड़ तक
और न ही बन पाते है सागर
कि निश्चित कर लें अपनी हद…
शाश्वत कुछ भी नही होता है
बदलाव ही नियति है
पर यहाँ हम आगे बढ़ कर भी लौटते हैं बार बार
कि दोस्त ऋतु होता है और दोस्ती मौसम ……………
-श्वेता राय