नदी- वीरेन्द्र तोमर

नदी, सागर से रूठ गयी
बोली तू तो स्वार्थी है
देश से पानी ढ़ो-ढ़ो कर
मैं तेरा आँचल भरती हूँ
कब मेरा कर्ज ऊतारेगा
बस इतनी आशा करती हूँ
मैं अब थक सी गयी
तन सूख गया
नहीं ताक़त अब कुछ ढ़ोने की
धरती से पानी गायब है
आवश्यकता आयी पानी की
पेड़-पौधे सब सूख रहे
फसलों को किसान अब रोता है
ये सब तुझे ज्ञात कराती हूँ
बादल प्यास से व्याकुल हैं
धरती गर्मी से तड़प रही
पानी बिन सब व्याकुल हैं
सुना था कि सब वापस करता है
मैं अपना दिया मांगती हूँ

-वीरेन्द्र तोमर