बोलो है मंज़ूर प्रिय?
नहीं आती मुझे लाज शर्म…
पता नहीं तुम्हें क्यों
गिला है इससे?
महबूब मेरे… ये समर्पण
ही तो है प्रेम की पूर्णता का
प्रतीक है, परस्पर सामंजस्य का…
एक दूजे में ओतप्रोत हो
एक दूसरे की ऊर्जा का
संचलन करने का
ये तो प्रीतियज्ञ की आहुति है
जिसका होम करने पर ही प्रणय
सुख पा सकते हैं… प्रिय
क्या यूँ ही अकेले तड़पते
रहना है प्यासा सा?
क्यूँ ना जिए हम… संलग्न होकर
एक दूजे में… आओ न
मैं तुमको तुम मुझको…
बांट लें आधा-आधा सा
-निधि भार्गव मानवी