करे कलकल बहे अविरल धरा पर डोलती प्यासी
उठें बुलबुल लगें मंजुल नदी है नेह विन्यासी
अतुल जल अंक में लेकर फिरे समतल कभी दलदल
अभी तक हार कब मानी युगों से सिंधु अभिलाषी
नहीं परिवाद वो करती भरा है रेत अभितल में
सभी जलचर लिये प्रश्रय जहाँ पर नीर की राशी
हरित वन साथ में उगते लता तरु सृष्टि मधुमाते
करोड़ों पाख का कलरव पथिक मुख पर दिये हाँसी
नदी औ’ नार दोनों में सहजता है सरसता है
किसी की धार अधरों सी किसी का प्यार मृदुभाषी
तरंगित तीर करते हैं हमेशा पीर हरते हैं
निभाते साथ सरिता का स्वयम भू मीत अविनाशी
-डॉ उमेश कुमार राठी