जब आऊं मैं तब भी तू ज्योति पर्व मनाएगी माँ
माना भूखी है अब भी तू तब मुस्कओगी ना माँ
यक्ष प्रश्न यह पूछ रही मैं कितनी वेदना और सहूँ
उभार उदर के किंतु भूख तुम्हारी कितनी और कहूँ
लहू चूसती नाभि बंधन क्योंकर है उल्लास तुम्हें
लालायित अधरों की प्यास, कहूँ जिंदा लाश तुम्हें
विमुक्त करो यदि तिल-तिल जलती जननी हो तुम
भ्रूण विकसित हो ना उदर माँ ह्रदय छलनी हो तुम
आह!तनिक ना लज़्ज़ा आई जाने कौन है नराधमी
कोख में सुकृति गढ़ती कहो विपदा कहूँ या हो उद्यमी
-चन्द्र विजय प्रसाद चन्दन
देवघर, झारखण्ड