उठ गई है यह कलम, अब आग बरसेगी।
हर गली, हर घर, हर जुबां पर, अब बस यही हुंकार गुजेगी।
रौंदा है तूने कोरे कागज को, क्षित- विक्षित कर उसके तन-मन को।
उस कलम को भी नहीं छोड़ा है, छीन कर उसके जीवन रस को।
बहुत लिखा है तूने, बहुत सुना है मैंने,
इन कोरे कागज पर अब न ये अत्याचार बरसेगी,
उठ गई है यह कलम, अब आग बरसेगी।
तेरे दिल मे जो आवाज़ है, तेरे जुबां पर जो अल्फाज़ है,
उससे परिस्थितियों पर अब आग बरसेगी।
धिक्कार है! धिक्कार है! उस कलम को, जो मीठी स्वप्नो को सहलाता है।
ठंढी में भी ठंढक का अहसास नहीं करा पाता है।
जब ठंढ से कोई ठिठुरता है और भूखे पेट मर जाता है।
इस ज्ञान के उजाले मे भी, जब कोई अंधेरे मे भटक जाता है।
तो सोचता हू, तो सोचता हू मै, फिर से सोचता हू मै।
क्यूं न- क्यूं न… तोड़ दू मै अपनी कलम को।
बहुत हो चुकी, बहुत हो चुकी,
ये कागज कलम की लड़ाई।
अब इंकलाब की बारी है, कागज पर उतरे अल्फाज़ को अब जज़्बात बनाने को बारी है।
लिखते हैं, सुनते हैं, लिखते हैं, सुनते है,
सब लिखते हैं, सब सुनते हैं,
लेकिन उन लिखे बातों को अब, अमल मे लाने की बारी है।
कागज पर उतरे अल्फाज़ को अब जज़्बात बनाने की बारी है।
-पंकज कुमार