एक रिश्ता है,
तुम्हारे सर्द लहजे
और मेरी सुर्ख आंखों के
बीच
एक पति है,
जिसके उठते हर तमाचे में
मैंने अपनी ही गलती खोज
ली,
उसने जब चाहा निचोड़ा
मेरा बदन
और मेरे इनकार में
सहमति खोज ली
एक समाज है,
जिसने देवी का दर्जा
देके,
मेरे साथ हर राक्षसी कृत्य
किया,
जिसने बुतों को पूजा
और जीवित को सती
किया
एक माँ है,
जिसने सारे दुःख सहे
और विरसे में मुझे
लहू से सुर्ख़
और अश्रु से नम
दामन सौंपा
वो है मुतमईन और चाहती है
मैं भी हो जाऊं,
कि ये तो कर्त्तव्य है स्त्री का
एक बेटी है,
जो है मेरी उम्मीद
मैं नहीं चाहती उसे सौंपना
विरसे में मिला दामन
एक दर्द है,
जो अब नहीं होता दूर,
मेरे छिदे कान
और दूब पे पड़ी ये ओंस की बूंद
एक पितृसत्ता है,
जिसने छेदे मेरे कान
और पायलों में पिरोकर
बंदिशें मेरे पैरों में डाल दी
पायलों की रुनझुन के संग
अब मेरा दर्द छनछनाता है
-मनीष कुमार यादव