युद्धरत लोग- रमेश कुमार सोनी

युद्धरत हैं लोग यहाँ
बचपन, बड़े होने के लिए,
युवा, व्यवस्था के खिलाफ
औरतें, घरेलू हिंसा और क्रूर नज़रों से,
घर, रोटी, कपड़ा और मकान के लिए
क्रोध के घोड़े पर सवार लोग
खुद के साथ और खुद के खिलाफ भी

युद्धरत हैं तमाम लोग
अलग-अलग खेमों और झुंडों के साथ
आसमान चीर रहे हैं
मुझे तो शांति की आवाज़ भी भयाक्रांत करती है
बाज़ार सीखा रहा है युध्द करने और
सदियों से वही जीतता रहा है अब बाज़ार ने युद्ध के विषय बदल दिए हैं-
अंतरिक्ष, साइबर, क्लोन्स…

लोग अक्षरों के साथ सीमा लाँघ गए तो
बाज़ार ने उन्हें डिजिटल असाक्षर घोषित कर पुनः असभ्य बना दिया
बाज़ार सदैव ही ऐसे नयी जरूरतें पैदा करता है और लोग
भूखे शेर, पागल भेड़िए और बिगड़ैल सांड की तरह
हिंसक व्यवहार पर उतारू हैं,
इस युद्ध में मर रहे हैं-
गाँव, हरियाली, रिश्ते और संस्कार
ऐ सुनो इन दिनों बाज़ार ने
कृत्रिम अंगों की नयी दुकानें खोली है
जल्दी ही वह हमें इसकी जरूरत के लायक बनाएगा

शिक्षक पढ़ा रहे हैं
सच बोलो, ईमान रखो, युद्ध बुरा है,
बाजार के वशीभूत
यदि वह पढ़ाने लगे कि-
पत्थर उठा लो, हथियार सब कुछ है
लाशें गिरा दो, भूखे-प्यासे टूट पड़ो
जला डालो सारे ग्रंथालय और स्कूल तो?
पता नहीं मानवता कहाँ जा रही है?
पता नहीं लोग आखिर ऐसा क्यों चाहते हैं?
कौन है जो चाहता है की बाज़ारों की शहंशाही रहे?
शांति गुमशुदा है श्मशानों से भी
सर्वत्र लूट-खसोट
खरीदो-बेचो की होड़ मची है,
बाज़ार अपनी पीठ थपथपाकर
खुशी से उछल रहा है
लोग उसके मोबाइल के दलदल में धंसे हैं
कोई चाहकर भी तटस्थ नहीं रह पा रहा है
याद रखें की युद्ध के बाद की दुनिया
कभी किसी के रहने लायक नहीं होती
श्मशान की ओर बढ़ते कदम
कभी ठिठकते नहीं है

-रमेश कुमार सोनी
बसना