सूरज का
एड़ी से चोटी तक दिन
डूब गया फिर
रोजी-रोटी तक दिन
सुबह शहद जैसी
है दोपहर कसैली
चिंताएं संझा को
कर गईं विषैली,
प्यार भरे चुंबन से
आपसी खरोंचों तक
लील गया बात
बड़ी छोटी तक दिन
पेट पीठ दोनों की
अपनी मजबूरी
ढोते हैं मिलकर के
एक अदद दूरी,
याचना निराश हुईं
दस्तक दे द्वार द्वार
विनती से चला
खरी खोटी तक दिन
पिटे हुए मोहरों का
घिसा हुआ जाल
घोड़े को काट गई
प्यादे की चाल
दिल्ली से चलकर के
कस्बों में गांवों में
सिमट गया
शतरंजी गोटी तक दिन
-रविशंकर पांडेय