सीढ़ियों पर पड़े सुखे पत्ते,
जलाशय में सड़ रहे पानी,
उम्र की सिलवटों को पार कर रहे हैं,
सभ्यताओं के छोर से लेकर
सांस्कृतिक विरासत की ओर तक
मै उस आदमी की शिनाख़्त में लगा हूँ,
जिसने पहली बार यह कहा-
‘ज्यादा पढ़ने से लड़कियाँ ख़राब हो जाती हैं,
नज़रें झुकाकर चला करो,
ज़माना क्या सोचेगा!’
मै दरिया के इस छोर से देखता रहा,
उसने बस इतना ही कहा-
‘घूँघट होता ही इसीलिए है,
जब औरत रोए तो उसे कोई देख न सके!’
संवेदनाएं कच्चे घड़े में डाल कर दफ़न कर दी गईं
बहू-बेटियों के धर्म का चोला
सर से सरक कर
कमर पर बंधी करधन की जगह में
तब्दील होने को बेताब
सदियाँ बीतने को हो चली
वह आदमी जब भी हाथ की पकड़ में आता है
उसका चेहरा बदल जाता है
अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए
पुरुषवादी हो जाता है
धर्म का रक्षक बन तलवार निकाल कर
खड़ा हो जाता है सामने
महत्वाकांक्षी सोच को उभारने,
डर बनाए रखने के लिए
घूँघट और चारदीवारी में क़ैद कर
ज्ञान के संसाधनों पर पहरा लगा कर
आज वह कई संप्रदायों में दिखने लगा है
उसके चेहरे,
अब बदल गए हैं
-जुगेश कुमार गुप्ता
शोधार्थी- इलाहाबाद विश्वविद्यालय
(रंगमंच & राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर शोध कार्य)