सूखी पड़ी नेह की नदिया, मरुथल हुई प्रीति की पुलकन
सुख की कोरी रही कल्पना, झुलस रहा मन का वृंदावन
नहीं प्रेम की एक बूँद भी,इस जग से हमको मिल पाई
राग-द्वेष की दुसह पीर की,अंतर् में बढ़ती गहराई
डाल रही दुनिया घावों पर, मिर्च, रामरस, अम्ल-रसायन
संबंधों के मतलब बदले, स्वार्थ सभी का ध्येय बना है
सबके हाथों खूनी खंजर, अविवेकी मन रक्त सना है
मीठे बैन छलावा केवल, अंतरंग है बहुत अपावन
जिस पर किया भरोसा अतिशय, उसने छला हमें नित पल-छिन
वर्षों बाद समझ पाए हम, भाग्य-रेख में बैठी नागिन
रात-दिवस व्याकुल नयनों से, झरझर-झरझर बहता सावन
घुटती साँसों की नजरों से, रूठ गया अपना ही साया
कफन दुखों का हमें उढ़ाकर, सबने जिंदा लाश बनाया
अनहद दूर मौत जा बैठी, शूलों का है बना बिछावन
– स्नेहलता नीर