बाबुल मैं हूँ सोन चिरैया
तेरे आँगन की गौरैया
कभी नहीं मैं रुकने वाली
नील गगन में उड़ने वाली
अग्नि परीक्षा देती रहती
तूफ़ानों से लड़ने वाली
छोटे से घर में रहती हूँ,
छोटी सी है एक मड़ैया
बाबुल की बगिया में खिलती
ख़ुशबू बन मै सदा बिखरती
नभ छूने की अभिलाषा है
इसीलिए कुन्दन सी जलती
कितने कष्टों को सहती हूँ,
क्या बतलाऊं दैया दैया
कष्टों का सागर बचपन है
कितना कुण्ठित ये जीवन है
जाम दुखों का पीती रहती
फिर भी मेरा मन चन्दन है
पार ब्रम्ह परमेश्वर मेरे,
मेरी नैया तुम्हीं खेवैया
अभी कली हूँ फूल नहीं मैं ,
उडने वाली धूल नहीं मैं
मेरा अन्तस वृन्दावन है
चुभने वाली शूल नहीं मैं
मैं दीपक सी जलती जाती
कुसुम सभी के घर अंगनैया
-कुसुम चौधरी