मात्र नहीं हैं हम और न ही नाममात्र हैं
हम हैं धरती के वासी जो धारित्री है हम सबकी
पोषित करती हैं हमें अपने भू-गर्भ से
और हम उनकी संतान हैं
नहीं विमुख हो सकते हम अपने कर्तव्यों से
तजना होगा हमें बेपैर की ज़रूरतों को, माँगों को
ग़र बचना चाहते हैं, जीवित रहना चाहते हैं
ये धरती हमारी मरजीवी है जो हर बार
मर-मर कर जीवित होती है
और हमें जीवित रखती है
क्या हम मरजीवी नहीं हो सकते
हमें जागना होगा इससे पहले
सब स्वार्थ की आग में जब जल भुन जाये
जला दीजिये, भून दीजिये
उन स्वार्थ की सिद्धि के सरमायदारों को
जो निगल रही है हमें आहिस्ता आहिस्ता
जोंक की तरह चूस रही है हमारी
मानवता की दरिद्रता को
छिटक कर फेंको उसे इसी भस्म में
अन्यथा
इसी आग की लपटों के धुएँ सी
हमारी ज़िन्दगी क्षण भर की हो जायेगी
हम मात्र-नाममात्र नहीं हो सकते
हमनें लम्बी लड़ाई लड़ी थी
अपनी निजता के लिए, स्वायत्तता के लिए
स्वाधीनता के लिए,
क्या वो विफ़लता का पर्याय बन गए हैं?
जब सफ़लता के झण्डे हमने लहराए थे
जय जवान जय किसान जय विज्ञान में नारे लगाये थे
वो नर्तन मर्दन हमारा मौन के किसी गहरे गड्ढे में समा गया है
क्या अब भी आपका हृदय द्रवित नहीं हुआ
या उसमें भी वो तरलता शुष्क हो चुकी है
जो हमें बताती है हम हृदयशील और हृदयवान हैं
सत्य की सत्यता कलंकित हो चुकी है
दम्भ भर कर शंखनाद करते हुए बता रहे हैं
हम मानव नहीं भगवान हैं
जहाँ भक्तों की ज़रूरत नहीं है
तो हटा दो पत्थरों की मूर्तियाँ
क्योंकि अब उन्हें पत्थरों से उम्मीद न पहले थी न अब है
भूख जब मनुष्यता पर हावी हो जाती है
तो भूखे को भी बचा नहीं पाती
क्योंकि भूख, भूख को भी निगल जाती है।
-डॉ संगम वर्मा