हे माँ- सिंधु मिश्र

हे माँ!
क्या माँ शब्द तेरे लिए
सिर्फ एक शब्द है
क्या नही जानती तू
इसका अर्थ
मर्म,ममता,मानवी और अपनत्व-
इन गुणों से भरा है माँ
क्या हुआ जो तेरी मांग उजड़ गयी
तू कितनी धनवान है माँ
तेरा पति तुझे चार कंधे,बहुएँ, पोते और पोतियाँ तो दे गया
अब भी वक़्त है
सहेज ले माँ इस धन को
वरना निर्जन रह जाएगी तू
तड़पेगी,छटपटाएगी हर पल को
क्या होती है संतान
निः संतानों से पूछ
जानती तू सब है
फिर भी बनती अबूझ
माँ का प्यार तो हर कीमती वस्तुओं से
खरा होता है
उसकी नज़रों में सब संतान बराबर है
इनमे ना कोई छोटा ना बड़ा होता है
तू बड़ी भाग्यशाली है माँ
जो तूने बेटियों सी बहुएँ पायी है
भले ही अपने माँ बाप को छोड़ तेरे घर आयी हैं
सबकी मानसिकताएं अलग,भावनाएं अलग हैं
अपनी बाहें फैलाकर तो देख माँ
सब अपनी हैं ना कोई परायी हैं
तू माँ है
माँ की ममता बन
तू किसी एक संतान की नहीं
सबकी बनके देख
मान ले इस बात को
जो विधाता की है लेख

-सिंधु मिश्र
हज़ारीबाग़