ज़िंदगी के कुछ पन्ने
अनछुए ही रह गए
सोचा था फिर से
ज़िंदगी की एक क़िताब
रची जाएगी
जिसके हर पन्नों में सिर्फ़
मेरे ही मन की बातों को
शामिल किया जाएगा
उस क़िताब के हर पन्नों में
मेरी ही कहानी होगी
शुरू से अंत तक उसमें
सिर्फ़ मैं ही एक अकेली क़िरदार
बनकर उस क़िताब को पूर्ण करूँगी
क्या यह सच में
संभव हो सकता है कि
बिना किसी और के
सहारे मैं अकेली ही
सबकुछ करती जाऊँ
और उस क़िताब के
हर एक पन्नों में अपने
प्यार के रंग भरती जाऊँ
मग़र उसे पढ़ने वाला कौन है
किसे मेरी ज़िंदगी में
इतनी दिलचस्पी है कोई है ऐसा
जिसे मेरी तरह ख़ुद को
पढ़ना अच्छा लगता हो
कोई नहीं है दूर तक
मुझे समझने वाला कोई नहीं
अकेली ही आई थी
अकेली ही रहूँगी बिना किसी सहारे
और ज़िंदगी की क़िताब को
अपने सामर्थ्य से अकेले ही पूरा कर
ख़ुद को दोबारा मौका दूँगी
खुलकर जी लेने के लिए
-डॉ विभाषा मिश्र
रायपुर, छत्तीसगढ़