Monday, November 18, 2024
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बारिश के मौसम में: वंदना सहाय

वंदना सहाय

देखो न!
इस बारिश के मौसम में
लगता है, जैसे बादलों के पर निकल आयें हैं
वे उड़ रहें हैं
जा रहें हैं लाने पानी, बारिश के लिए
और फिर, बरस पड़ेंगें

चुपचाप, ठगा-सा आसमान
ताक रहा है उन्हें

कितनी बार उसने भी उड़ना चाहा है
इन बादलों की तरह ही

कभी श्यामल हो
बरसना चाहता है
तो कभी बगुले- सा श्वेत रह
बारिश के मौसम में
लोगों की उनमें दिचस्पी का हिस्सा बनाना चाहता है

पर नहीं
वह ऐसा नहीं कर सकता
न ही मचा सकता है उधम
और न ही कर सकता है
खेल-खिलवाड़, इन आवारा बादलों की तरह
उसे अपनी गरिमा और ज़िम्मेवारियों का
ख़याल रखना होता है-
नीचे पृथ्वी के जवाब में
उसे तैनात रहना पड़ता है

वह अपने असीम फैलाव में भी
खुद को सीमित महसूस करता है

सहता है
सूरज के ताप को
सुनता है- जब चाँद हाँक रहा होता है डींगें
अपनी ख़ूबसूरती के
या फिर, उसे देता है तस्सली
जब चाँद हो उदास
अपने चेहरे पर दाग़ होने का दुःख
उससे करता है साझा

जब झपकने लगती है
तारों की आँखें
वह रोज़ अपनी चादर बिछा देता है
उन्हें सोने के लिए

सुबह उठते ही
अपनी विस्तृत बाहें खोल
पाखी-दल का स्वागत करता है

बन पटल, दिखलाता है
सुबह, दुपहर और शाम का होना
लगता, वह कोई सिद्धहस्त जादूगर
अनंत से अपने-आप में समेटे
न जाने कितने रहस्य

पर कभी, आसमान
बहुत छटपटाता है
इन सब बन्धनों से छूटने के लिए
वह समझ नहीं पाता
किसने इतनी मजबूत कीलें ठोक रखी है
और क़ैद कर रखा है
उसके वज़ूद को

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