ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लिए
बेरोज़गार युवक-युवतियों को
जब देखता हूँ
मन उदासी और दुःख की
दलदल में डूब जाता है
उनके सपने
किसका शाप भोग रहे हैं?
वे किस अपराध की
सजा काट रहे हैं?
वे कब तक
अपनी इच्छाओं के शिशुओं को
बिलखता हुआ लखते रहेंगे?
वे बेरोज़गार
कब तक अपने माता-पिता की बीमारियों का
घरेलू उपचार करते रहेंगे?
भाई अपनी बहनों को कब तक
राखी के त्योहार पर
झूठे आश्वासन देते रहेंगे?
बेरोज़गार युवक-युवतियाँ कब तक
हितैषियों के सवालों का सामना करते रहेंगे?
क्या कर रहे हो आजकल?
कब उनकी जिंदगी की गाड़ी
परिवार की पटरी पर प्रवेश पायेगी?
जब भी किसी बेरोज़गार को देखता हूँ
सोचता हूँ
कौन-सा दिन होगा वह
जब वे बेरोज़गार नहीं
बारोज़गार कहलाएंगे।
जसवीर त्यागी