बाँध पेट पर पत्थर पूछे, प्रश्न निरंतर यक्ष
उत्तर गूंगे बहरे सारे, सुने न कोई पक्ष
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मौसम सारे बन कर बैरी, दें प्रतिफल संताप
कुछ वरदानों से आभूषित, हमें मिले अभिशाप
अंतर्घट का एक एक है, अंधकारमय कक्ष
संगम तट पर कल्पवास में, कितने काटे माघ
अपनी किस्मत के हिस्से में, जलता हुआ निदाघ
भूख, प्यास, आँसू, उत्पीड़न, हमें मिले प्रत्यक्ष
सपने कैदी हाथ कटे हैं, पैरों में जंजीर
निकल कलेजा मुँह को आता, देख सुता की पीर
व्यंग वाण अनुदिन जहरीले छलनी करते वक्ष
अपना तन पंजर मैला है, उनके उज्ज्वल वेश
गगन चूमते उन महलों में कहाँ दुखों का लेश
जीवन गाड़ी पैदल अपनी, ये द्रुतगामी दक्ष
स्नेहलता ‘नीर’