सुमन सुरभि
लोग ढूँढते रहे तुम्हें, मेरे अल्फ़ाज़ों में….
गीतों में, मल्हारों में
छंदों में, अलंकारों में
एहसासों में, अरमानों में
तुम होते तब तो किसी को दिखते
किसी से मिलते….
तुम थे सिर्फ़
मेरी एक कल्पना
कोरी कपोल कल्पना
एक अतृप्त कल्पना…..
पता है इन कल्पनाओं ने
मुझे कितना बदनाम किया,
मेरी कविताएँ पढ़ कर
न जाने किस किस से
मेरा नाम जोड़ा,
लेकिन फिर भी किसी ने
मेरा ये भ्रम न तोड़ा
कि तुम हो ही नहीं,
हाँ तुम्हें कैसे पता होगा
कि मैंने क्या क्या सहा
क्योंकि तुम हो ही नहीं….
फिर भी अच्छा लगता रहा मुझे
कोई तुम्हें ढूँढे मुझमें,
अच्छा लगता जब कोई पुकारता
तुम्हारे नाम से मुझे।
तुम्हारा नाम!
कुछ भी हो सकता है….
तुम भी रख सकते हो अपना नाम…..