कोई अंदर बैठा क़ातिल है
शाम आज कुछ बोझिल है
क्या उखड़न अंदर बैठी है
विराग; भीतर शामिल है
पीछे मुड़कर क्या देखूँ मैं
कितना मुझको हासिल है
‘उड़ता’ तू भी अधूरा रहा
आज तक कहाँ कामिल है
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
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