ऋचा गौतम
पटना, बिहार
गांव का पुराना घर
बाट जोहता है किसी अपने का
पिछली बारिश में चू रही थी छत
इस बारिश आंगन के दीवार में आ गई है दरार
कभी छोटे से छत पर बारी बारी सारे अनाज सुखा लेती थी मां,
अब वहां उगते हैं, सूखते हैं, झरते हैं सालों भर
खरपतवार
जैसे घर ने खुद व्यवस्था कर ली हो अपनी लाज ढकने का
गांव का पुराना घर बाट जोहता है किसी अपनें का
बड़ा बेटा कानपुर में रहता है, फ्लैट भी बना ली है
छोटे ने तो दिल्ली के सरकारी आवास पर अपनी
नेमप्लेट भी लगा ली है
पुराना घर अपनें बचे खुचे रंग में रोज देख लेता है धुंधलाता चेहरा
पिता के पूरे हुए सपने का
गांव का पुराना घर, बाट जोहता है किसी अपने का
बुआ की शादी में बना कोहबर, अब भी अकेले अपने शगुन तान को
दोहराता है
हर साल दीवाली में, होली में आंगन, दादी की खुली आंखों सा सूना रह जाता है
बड़ी बहू के हाथ के हस्ताक्षर को संभाले ताला, दिन गिनता है खुलने का
गांव का पुराना घर बाट जोहता है किसी अपने का