रंजीता सिंह ‘फ़लक’
वो अपने हिस्से का झूठ
रोज़ बेच लेता है
ठीक वैसे
या शायद उससे बेहतर
जैसे की कुछ लोग
बेच लेते हैं
आधा सच
आधा झूठ
और मैं देखती हूँ
एक उदास-निराश भीड़
जो रोज़ सच, खाँटी सच लिए
खड़ी रहती है
पहरों -पहर और फिर भी नहीं
बेच पाती एक भी
पूरा का पूरा सच