चारों ओर भँवर विपदा के, कैसे मैं उद्धार लिखूँ।
जीवन का हर पल-छिन कैसे, पीड़ा का उपहार लिखूँ।।
कुटिया की छाती पर महलों, मीनारों के शस्त्र तने।
घूम रहे शैतान हाथ में, खंजर लेकर रक्त-सने।
निर्धन की गर्दन पर लटकी, शोषण की तलवार लिखूँ।।
मर्यादा पर घात लगाए,गली- गली में बाज खड़े।
झाँक रहे खिड़की-दरवाजे, मुख पर ताले कठिन जड़े।
मरी मनुजता को मैं कब तक, बार-बार धिक्कार लिखूँ।।
धधक रही विद्वेष भाव की, आग आज विकराल हुई।
मरणासन्न सभी रिश्तों की, चाल-ढाल बेहाल हुई।
पथराई आँखों में कैसे, नेह-प्यार मनुहार लिखूँ।।
गगन चूमतीं हैं मीनारें, अमराई-खलिहान नहीं
नहीं भोर का खगकुल-कलरव,कलकंठी की तान नहीं।
ठूँठ हुए जंगल तो कैसे, आई कहीं बहार लिखूँ।।
बढ़ते अपराधों के सम्मुख, न्याय व्यवस्था लँगड़ी है।
जंजीरों में भारत माता, आज तलक भी जकड़ी है।
खोटे सिक्के हाट-बाट में, चलते धाराधार लिखूँ।।
स्नेहलता नीर