इंतज़ार का मौन: नंदिता तनुजा

नंदिता तनुजा

सुनों,
इंतज़ार का मौन
समझ आता है
टकटकी आँखे
बेहिसाब चीख़ती है
पुकारती प्रिय का नाम
वादों को दोहराती है
उन्हीं इरादों के साथ
टीसते मन बेहिसाब
समझाती है
लेकिन
चुपचाप से
अपने आस की डेहरी पर
सुबह से लेकर शाम तक
एक दीया प्रेम का जलाती है

रात्रि पहर छत पर जाती
चाँद से बतियाते हुए
प्रिय को करके याद
ढुलकते आँसू से
शिकायत खूब सुनाती है
फिर मन की ख्वाहिशों को
खुदी मनाते हुए
आसमां के सूने सितारों को
गिनकर.. रातभर
उंगलियों को जलाती और
ख्वाबों को जगाते हुए
इंतज़ार लिए
मन ही मन बुदबुदाती है
चुभती है तनहाई
सुबह का आस लिए
लेकिन सोती नही है कभी
क्योंकि एतबार आने का
ये इंतज़ार
वफ़ा के हिस्से का साहब

कि इंतज़ार है मौन लिए
सदियों से बहती हुई हवाएं भी
प्रेम की ज्योत बुझा नही पाती है