वंदना सहाय
नागपुर
तुम्हें दर्जा मिला
एक साधारण स्त्री होने का
और तुम नहीं लाँघ पायीं
कभी चौके की दहलीज़
घर के सामानों के बीच
अपनी जगह बनाते हुए
न मालूम बीत गए कितने वर्ष
माना नहीं हो तुम अलमारी में बंद मेवे-सी
तुम हो प्लास्टिक के डिब्बे में रखा नमक
जो है अपरिहार्य-सबके लिए
जो तुम नहीं तो किसी चीज़ में नहीं स्वाद
पढ़-लिख कर जो भी सीखा तुमने
वह भी बंद होकर रह गया था
किसी राशन के डिब्बे में
फिर एक दिन तुम्हें पुकारा संवेदनाओं ने
और तुम लिखने लगीं- कविताएँ
कविताएँ-जिन्हें तुमने दिया था जन्म
झेलीं थीं उनकी प्रसव-पीड़ा
तुम्हारी सच्ची कविताएँ छू जातीं हैं दिल को
क्योंकि इनके पकते हैं शब्द
तपती आँच पर रोटियों के साथ
हल्के सुनहरे-भूरे होकर
यूँ नहीं है आसान
शब्दों का पकना आग के साथ
पर साथ जो तुम होती हो
आग को महसूसती हुई