Sunday, January 19, 2025
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जब तुम रचती हो कविता: वंदना सहाय

वंदना सहाय
नागपुर

तुम्हें दर्जा मिला
एक साधारण स्त्री होने का
और तुम नहीं लाँघ पायीं
कभी चौके की दहलीज़

घर के सामानों के बीच
अपनी जगह बनाते हुए
न मालूम बीत गए कितने वर्ष

माना नहीं हो तुम अलमारी में बंद मेवे-सी
तुम हो प्लास्टिक के डिब्बे में रखा नमक
जो है अपरिहार्य-सबके लिए
जो तुम नहीं तो किसी चीज़ में नहीं स्वाद

पढ़-लिख कर जो भी सीखा तुमने
वह भी बंद होकर रह गया था
किसी राशन के डिब्बे में

फिर एक दिन तुम्हें पुकारा संवेदनाओं ने
और तुम लिखने लगीं- कविताएँ

कविताएँ-जिन्हें तुमने दिया था जन्म
झेलीं थीं उनकी प्रसव-पीड़ा
तुम्हारी सच्ची कविताएँ छू जातीं हैं दिल को
क्योंकि इनके पकते हैं शब्द
तपती आँच पर रोटियों के साथ
हल्के सुनहरे-भूरे होकर

यूँ नहीं है आसान
शब्दों का पकना आग के साथ
पर साथ जो तुम होती हो
आग को महसूसती हुई

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