जीते हैं, मरते हैं
जीते जी मर जाते हैं
जी–जी कर मर जाते हैं
मरते-मरते जी जाते हैं
जीने–मरने की प्रतिस्पर्धा में
कितने ही जी–मर जाते हैं
जीने की चाहत में
जाने कितने ही जी जाते हैं
मरने की भय, शंका में
कितने ही मर जाते है
जीवन मरण के इस रहस्मय जाल में
पीछे रह जाती मानव चाल
है प्राणों पर अधिकार किसका?
न कर विकट अपना हाल
जीवन रहते, जीवन दे
कर संकल्प फिलहाल
फिर प्राण–पक्षी उड़ जाएंगे
छोड़ तनमय डाल
-एच के रूपा रानी
बेंगलुरु