बचपन के भी क्या दिन थे
वो घिसट-घिसट कर चलना
वो खिलखिलाकर हंसना और रोना
अजीब दिन थे वो भी
ना किसी चीज का ग़म
ना कहीं आना-जाना
ना किसी चीज़ की चिंता
ना कोई बोझ
बस अपनी ही दुनिया में
मगन रहना
आज याद आती है उस दिन की
कि कैसे रहते थे हम
माँ की गोदी में सोना और
उसके आंचल को पकड़कर चलना
उसके डांटने पर रोना
क्या दिन थे वो भी
आज भी मन करता है
कि वही पल फिर से जी लूं
बहुत परेशान हो गई हूँ
इस दुनिया के बोझ उठाते- उठाते
क्या दिन थे वो भी
आज आँखों में आंसू आते हैं तो
किसी को बयां नहीं कर पाती हूँ
दिल फिर से वही कहता है
कि काश मैं छोटी होती
ना ही कोई ग़म होता
ना ही किसी की परवाह करना
ना ही किसी की चिंता होती
ना ही कोई काम होता
थक गई हूँ इस दुनिया के
बेझिझक सवालों से
मन करता है कि काश कहीं
एकांत में जा कर बैठूं
बस मैं और मेरी परछाई हो
और कोई ना हो
दुआ यही करती हूँ कि
वो दिन फिर से लौट आए
जी लूं उस पल को फिर से
जो मैं पीछे छोड़ आयी हूँ
दीपा सिंह
चंडीगढ़