रूची शाही
साथ निभाने से ज्यादा
साथ छोड़ना मुझे आसान लगने लगा है
अब मैं चाहती हूँ कि अलग कर लूँ मै खुद को
हर रिश्ते नाते और बंधन से
क्योंकि निभाने की चाह में
मैंने बस खुद को जाया ही किया है
जब भी देखा मैंने खुद को तन्हा ही देखा है
खुद से बतियाते हुए रोते हुए
और अपने आंसुओं को खुद ही पोछते हुए
मन मेरा भी होता था कि मिलती मुझे कभी
तुम्हारे कांधे पर थोड़ा सी जगह सिर टिकाने को
कभी बिना कहे ही सुन पाते तुम
कि कभी कभी कुछ न कह पाना
कितना मुश्किल होता है मेरे लिए
मेरे चाहने और न चाहने के बीच कुछ नही बदला
बस सबने थोपा मुझपे अपनी अपनी चहनाओं को
समझते समझते मुझे बहुत देर लग गयी
कि सब कुछ समझना मुझे ही है
अब जब समझ आया है तो
मुक्त कर लेना चाहती हूँ मैं खुद को
सबन्धों के खोखले जुड़ाव से