व्याकुल मेरा मन- जयश्री दोरा

मेरे अंदर की व्यक्तिसत्ता
विभाजित है अगणित खण्डों में
तमाम जटिलताओं का
एकीकृत रूप है एक- एक खंड
मौन के एकांत क्षणों में
टकराते हैं ये आपस में
इनसे उत्पन्न प्रचंड शब्द कि
जब भी अनसुना करना चाहती हूँ
ये बजने लगते हैं जोर – जोर से
दुगुनी तीव्रता के साथ

एक ही पल में मुझे रहती है
आसमान को छूने लेने की ललक
जमीन में धँस जाने का खौफ़
मृगतृष्णा के पीछे भागता
व्याकुल मेरा मन
अँधेरे में इन्द्रधनुष को
पा लेने के स्वप्न में निमग्न
मृत्यु के आलिंगन में मग्न
मेरी जिजीविषा अदम्य

मेरे अंदर की व्यक्तिसत्ता
विभाजित है अगणित खण्डों में
जब – जब ये टकराते आपस में
इनसे जन्य पीड़ा
आश्चर्यसूचक नहीं
बल्कि खड़ी रहती है मेरे सामने
प्रश्नवाची बनकर

-जयश्री दोरा