सम्वेदनाएँ- रूची शाही

मसिक धर्म के दौरान
औरत के शरीर से बहने वाले रक्त में
बस रक्त नहीं होता
उसमें होती हैं औरत के मन की
मलिन सम्वेदनाएँ भी

वही सम्वेदनाएँ जो अनछुई
और अनदेखी सी रह जाती है
जिसे समझने वाला, पूछने वाला
कोई नहीं होता

ये सम्वेदनाएँ औरत मन के भीतर
पनप कर बनाती हैं अपना अस्त्तित्व
चाहती हैं इन्हें कोई समझे
इन्हें कोई दुलारे
पर उम्मीदों के साये में पलती हुई
ये सम्वेदनाएँ घुटने लगती हैं
और मस्तिष्क से निकल कर अब
औरत के हृदय में ठहरती हैं
जहां अवसादों और कुण्ठाओं के
अस्तर से लिपट कर
और मलिन हो जाती हैं

ये सम्वेदनाएँ प्रेम के
गले से लग कर उर्वर होना चाहती हैं
उपेक्षित हुए जाने पर
आँसू बनकर बहना चाहती हैं

और अंत मे
कहीं कोई ठिकाना न पाकर
स्राव बनकर बह जाती हैं शरीर से
अथाह दर्द सहते हुए
औरत के मन और तन को
बार-बार पवित्र करने के लिए

– रूची शाही