विश्वकर्मा: वंदना सहाय

वंदना सहाय

कंक्रीट के जंगल को
पनपने में मदद करते ये लोग
अक्सर रह रहे होते हैं
आकाश को चूमते स्काईस्क्रैपरों के किसी कोने में
जिनका निर्माण चल रहा होता है

उगता हुआ सूरज
स्काईस्क्रैपर के ऊँचे तल्लों से
बहुत सुन्दर दिखता हैं
पर यहाँ सूरज इन्हें उठा कर
हिदायत देता है-
काम पर लगने के लिये

और ये हो गये तैयार
काम पर लगने के लिये
सिर पर पीली प्लास्टिक की टोपियाँ-
असुरक्षा और जीवन-बीमा का प्रश्न उठाती हूईं

चलने लगते हैं मशीनी हाथ
और वे गढ़ने लगते- एक सुन्दर संसार
हजारों के रहने के लिये

शाम को लौटते हुए-
वे लाते है, बस उतना ही भर
जितना उन्होंने कमाया
अच्छी तो मन लायक
और नहीं तो बिन दाल के
हल्दी डाल खिचड़ी पकाने का कर लेते हैं ढोंग

थके शरीर जल्दी ही सो जाते हैं
उन दीवारों के बीच
जो होते हैं- बिना रंगों के
इनकी जिंदगियों की तरह ही

न मालूम कितने बरस करते हैं ये मेहनत
और अंत में बन विश्वकर्मा-
कर जाते हैं एक सुन्दर नगरी का निर्माण

और एक बार फिर सिर पर बिना छत के
निकल जाते हैं आगे
दूसरों के घर का ख्वाब पूरा करने के लिए