हमें परिचय की
भला क्या आवश्यकता
मैं भारत की बेटी हूं
संघर्ष हमारा नाम है
फिर भी सदैव
अधरों पे मुस्कान है
किस कलम से
विधाता ने लिखा भाग्य हमारा
संघर्ष पड़ा क्यूं नाम हमारा
सीता, अहिल्या, द्रोपदी, बिरहन मीरा
या फिर निर्भया कोई
हवस की आहुति बनी शिशु कन्या कोई
दहेज में प्रतिदिन जलती नवेली कोई
हमारी हस्ती सदैव सूखे पत्तों जैसी बिखरती क्यूं
हमारी संवेदनाओं के ऊपर निरंकुशता की फिर चादर क्यूं
अपना संघर्षो से हर युग में नाता क्यूं
मां के गर्भ से आरंभ होती है
हमारी संघर्ष यात्रा
गर्भ में पनप रहे बीज की भांति
और बाहर दी जाती है दुहाई
अनुमानों के दर्पण पर
रची जाती है कल्पना
हे प्रभु गर्भ में बेटा ही गढ़ना
और हम गर्भ में ही
उलाहनाओं की पगडंडी पर
चलना सीख जाते हैं
हमारा जन्म होने पर
सबके होंठ काले
शरीर दुख से पीला पड़ जाता है
ना ही बंटती है मिठाई
और ना ही बजती है बधाई
फिर पक्षपात की पटरी पर
बनायी जाती है परिधि
और कुल की मर्यादा बनी रहे कहकर
हमें कहाँ जाना है कहाँ नहीं
कंठाग्र आज्ञापत्र ज्ञापित की जाती है
संघर्ष की निरंतर यात्रा में
ताप युक्त एक ऐसा पड़ाव आता है
जब हम यौवन के प्रथम सोपान पर होते हैं
एक ओर हमारी शिक्षा
और दूसरी ओर सामाजिक भेदभाव
मानो भान पड़ता है हम हैं ही नहीं समाज का हिस्सा
नुक्कड़ व चौराहे के संघर्षों को झेलते हुए
विद्यालय तक पहुंचना और थोड़ी सी देर होने पर
पड़ोसियों का खिड़की से ताकना
हमारे संघर्षों में एक और कड़ी का जुड़ जाना
हम पढ़ लिखकर
अंतिम लक्ष्य तक पहुँच भी नहीं पाते
तभी रस्मों के बंधन मैं हमें बांध दिया जाता है
जहाँ हमारी तमाम उपलब्धियों को
उपेक्षित भीत में चुन दिया जाता है
प्रतिदिन परीक्षा की कसौटी पर ढ़लकर
स्वयं के आत्म संग्रहालय में केवल और केवल दिखती है
अश्रुओं की रोशनाई से लिखी हुई संघर्षो की पोथी के
बिखरे हुए पन्नों पर अपठित वृतांत
कदाचित स्वयं भी पढ़ने में हम असमर्थ होते हैं
प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश