अनुजीत इकबाल
लखनऊ
हर कवि के पास
कोई सूक्ष्म रूप में रहता है
जो उसके शब्दों में झिलमिलाता है
जैसे ओस की बूंद में बसा पूरा समुद्र
चिड़ियों के गीत में छुपी वाणी
हर स्वर अलग, फिर भी सब एक
प्रकृति का मौन संगीत जैसे
हर शाख पे खिला एक नया सुर
तुम्हारी झलक में देखा मैंने
तथागत की प्राचीन लय का नाद
नानक के अधरों पे स्थिर वाणी
कृष्ण की बांसुरी का आदि राग
सांझ के झील में अवगाहित
अरण्य में गूंजती मौन ध्वनि
तुम्हारी ओर उठता मेरा ध्यान
हाथ हृदय पर, आँखों में समर्पण
हर क्षण में तुमसे बंधा ये मन
मैं शब्दों की माला पिरोती हूं
हर शब्द में ढूंढती तुम्हारी परछाईं
कभी तुम मेरे गीत के छंद में हो
कभी मेरी खामोशी में गूंजता तुम्हारा नाम
यह मेरा प्रेम है, यह मेरी साधना
हर रचना एक प्रार्थना बन जाती है
और अगर सीधे न भी तुम तक पहुंचूं
तो सहस्त्र पथ फिर भी होंगे
जो तुम तक ले जाकर
उस अनंत में विलीन कर देंगे