संतो! मौन की महिमा न्यारी। मौन की बड़ी महिमा है। कहा गया है ‘मौनं सर्वार्थ साधनम्’। इसकी महिमा वेदों और पुराणों में है। शास्त्रों में इसका बड़ा महत्व बताया गया है। रामायण और महाभारत तक में मौन की महिमा का उल्लेख मिलता है। भला सोचिए जब कैकयी ने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे थे उस समय यदि राजा दशरथ मौन रह जाते और कैकयी की मांग पर विचार करने के लिए मंत्रीमंडल की समिति बना देते तो न तो राम को वनवास होता और न ही रामायण लिखी जाती। इसी प्रकार माया महल में आए हुए दुर्योधन को देखकर यदि द्रौपदी उसे अंधे का बेटा अंधा नहीं कहती और क्षण भर को मौन रह जाती तो क्या महाभारत होती।
मौन की महिमा में कवियों ने लंबी-लंबी कविताएं लिखी और गाई हैं और लोगों को वाह-वाह करने पर मजबूर कर दिया है। वक्ताओं ने मौन पर घंटों भाषण दिए हैं और अपने तर्कों से लोगों की बोलती बंद कर दी है। इसलिए मौन की बड़ी महिमा है।
शब्द और मौन के इस खेल में, किसकी जीत किसकी हार है शब्द बदलते रहते है ,पर मौन सदा बहार है ।
संतो! मैं जानता हूँ कि आज तुम लोग कुछ लोगों के मौन रहने की बात पर हँसते हो और मौन को मूर्खों का आभूषण और न जाने क्या-क्या कहते हो। परंतु संतो मौन रहना भी एक बड़ी साधना है, एक तपस्या है और कुछ लोगों के लिए सेवा भी है। मौन की महिमा निराली है। मौन तुम्हारे सुनने की क्षमता को बढ़ाता है। समाज में बकबक करने वालों की इतनी प्रतिष्ठा नहीं है जितनी मौन रहने वालों की है। धर्म और राजनीति दोनों क्षेत्रों में मौनी बाबाओं की जितनी इज्जत कमाई है, उतनी बकबक बाबाओं ने नहीं, इसलिए लोग मौन व्रत करते हैं।
कहा गया है– ‘महीयांस प्रकृत्या मितभाषिणः’। जब सारी दुनिया सारा देश अपने कान खड़े करके आपके बोलने की प्रतीक्षा कर रहे हों, दर्जनों टी वी चैनल के पत्रकार अपने अपने माइक्रोफोन थामे आपसे किसी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषय पर आपसे बाइट लेने के लिए पलक पाँवड़े बिछाए खड़े हों, और आप उस समय मौन रह जाएं तो यह एक घोर साधना नही तो और क्या है? इतिहास गवाह है माइक्रोफोन की मेनका के आगे तो अच्छे-अच्छे विश्वामित्रों की तपस्या भंग हो जाती है। ऐसी-ऐसी अंट-संट बातें मुखारविंद से फूट पड़ती हैं कि बचाव करने में अच्छे-अच्छे धुरंधर प्रवक्ताओं की भी शाम की डिबेट में बोलती बंद हो जाती है। माइक्रोफोन में तो वो ताकत है जिसके लिए बाबा तुलसीदास ने कहा है कि ’मूक होंहि वाचाल’। हो सकता है बाबा तुलसीदास ने उक्त बात किसी और प्रसंग में कही हो लेकिन क्या संतों की बात हर प्रसंग में सही नहीं होती? यदि क्षमा को वीरों का भूषण कहा गया है तो मौन को भी राजनेताओं का भूषण माना जाना चाहिए। मौन राजनेतस्य भूषणम्। यदि जनता रामलीला मैदान में और जंतर मंतर में इंडिया गेट में जोर-जोर से नारे लगा रही है उस समय नेता भी बोलने लगे तो राजा और प्रजा में क्या अंतर रह जाएगा।
गुलों ने खारों के छेड़ने पर, सिवा ख़मोशी के मुँह न खोला;
शरीफ़ उलझे अगर किसी से, तो फिर शराफत कहाँ रहेगी।
संतो! इसी शराफत की रक्षा के लिए महापुरुष मौन व्रत करता है। शराफत के साथ-साथ कई सवालों की आबरू की रक्षा भी लगे हाथ हो जाती है। देश की महिलाओं बच्चियों की आबरु जाती तो जाए। रुपये की आबरू जाती हो तो जाए। देश की आबरू जाती हो तो जाए। शराफत नहीं जाना चाहिए।
संतो! तुम गृहस्थ नहीं हो, साधु हो अगर तुम्हारी लुगाई लड़के बच्चे होते तो तुम मौन की महिमा आसानी से समझ लेते । वहाँ कम बोलने वाले ही टिकते हैं, ज्यादा बोलने वाले दुःख उठाते हैं। सुखी पति वही हैं जो या तो बहरे हैं या गूँगे हैं। जब घरवाली मौन हो जाती है तब वह सोए हुए ज्वालामुखी के समान हो जाती है। एक सफल पति अपनी पत्नी की बकबक से जितना नहीं घबराता जितना उसके चुप रह्ने से । अर्पणा मिश्र जी की कविता है-
मौन हैं जो स्त्रियाँ
तो ही पुरुष बोलता
पर स्त्रियों के मौन से ही पुरुष है बंधा हुआ ।
संतो! हमारी फिल्मों में भी मौन का बड़ा महत्व है। फिल्मों की शुरूआत ही मूक फिल्मों से हुई थी। वे फिल्में सार्वदेशिक और सार्वकालिक सिद्ध हुईं। बाद में जब बोलने वाली फिल्में बनीं तब उनमें “चुप है धरती चुप है चांद सितारे”, “चुप चुप बैठे हो जरूर कोई बात है”, “बस एक चुप सी लगी है” जैसे गाने बनाए गए।
संतो! जब कवि मौन होता है तो एक नई कविता का जन्म होता है। जब एक संत मौन होता है तो ईश्वर की आवाज सुनाई देती है परंतु जब एक नेता मौन हो जाए तो जनता को सावधान हो जाना चाहिए। अच्छा नेता जानता है कि कब बोलना है और कब चुप रहना है। नेतागीरी स्थापित करने के लिए बोलना आना चाहिए और उसमें टिके रहने के लिए चुप रहना। ये राज जिसने समझ लिया उसे विधायक सांसद और मंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता।
दीप जीवन का सजा है चाँदनी बन
ताप के अहसास को कुछ सघन होने दो।
शब्द के संसार को अब मौन होने दो॥
-मुकेश चौरसिया
गणेश कॉलोनी,
केवलारी, सिवनी