औरतें शुरू-शुरू में
गुलाब हुआ करती हैं
बेहद सुंदर, नाजुक और सजीली
सबका मन मोहने वाली
फिर आहिस्ते आहिस्ते
होने लगती है नागफनी सी
उगने लगते है उनके बदन पे भी
छोटे छोटे अनगिनत कांटे
उफ्फ कैसी औरत है..?
ज़ुबान कैंची सी चलती है इसकी..
सहना तो सीखा नहीं है इसने
घर को नर्क बना दिया है
बस अपना ही सोचती है
ये क्या लगायेगी घर…
जैसे धारदार हज़ारो काँटे
ढक लेते हैं उसके वजूद को
अब कोई उनको छूना नहीं चाहता
कोई उनको सजाना नहीं चाहता
क्योंकि वो चुभती हैं
बस हाथों को ही नहीं
सबकी आँखों को भी
ये काँटे वक्त ही तो सौंपता है
उनकी देह को
जिसकी चुभन वो खुद भी सहती हैं
ये काँटे जितना शरीर के बाहर
उतना ही अंदर भी धंसे होते हैं
फिर भी सहेज लेती हैं औरतें
इन कांटों की चुभन को भी
अपने भीतर
क्योंकि वो जान जाती है
कि लंबे इंतजार के बाद
नागफनी में भी खिलते हैं
जिजीविषा के सुंदर और प्यारे फूल
रूची शाही
बिहार