यही देखना रह गया चलते-चलते
गिरगिट से लग रहे बदलते रिश्ते
कौन जाने अंदर, नासूर दबा था
जबकि लोग लग रहे हँसते-खेलते
ज़माने में बेगैरत जन भरे पड़े हैं
देख ना सके हमें फूलते-फलते
कामयाबी क्या ख़ुशी देती हमें
जब देख लिए घरोंदे टूटते-बिखरते
हम ही सबको बांध ना रख सके
किस बात पर उछलते-मचलते
तमाम उम्र ही रहे मुझको अखरते
‘उड़ता’ ये पल में बदलते रिश्ते
-सुरेंद्र सैनी बवानीवाल ‘उड़ता’
झज्जर, हरियाणा
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