लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
व्यथित मन से अश्रुपूर्ण नयनो से रुक्मणी ने श्री हरि से पूछा
प्रभु हर फागुन पर क्यों आपके साथ राधारानी का ही साया है
सप्तपदी के फेरे लिए आपने मेरे संग करके मेरा पाणिग्रहण
बीच विवाहमंडप से हर कर मुझे आपने भार्या रूप में अपनाया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
राधा तो हैं सखी मात्र रुक्मणी,तुम हो मेरी अर्धांगिनी जन्म जन्मान्तर की
हर अवतार में जन्म लेकर मैंने, तुम्ही संग तो ही अपना विवाह रचाया है
धरा पर जब जब रास रचाया है मैंने, राधारानी और अन्य गोपियों संग
हर बार मेरे अंगों में समाकर प्रिय तुमने ही तो राधा संग रास रचाया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
समझो ये तो मात्र भक्तिभाव को प्रेम रस में मिलाने के लिए मानव ने
मेरे साथ जोड़ा है गोपियों का नाम, पर मैंने कब ऐसा कथन कहीं दोहराया है
उठा लो कितने भी वेद पुराण या फिर उपनिषदों की मालायें
न पहले था, न ही होगा इनमे, बोलो न कहीं ही राधा का नाम आया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
भद्रा, सत्या, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रविंदा, रोहिणी, लक्षमणा और
सोलह हज़ार बंधक राजकन्याओं के संग विवाह रच मैंने राजधर्म निभाया है
पर सच्चा प्रेम किया था तुमसे ही जन्म जन्मान्तर का मैंने हे रुक्मणी
रुक्मी और शिशुपाल से कर शत्रुता, युद्ध जीत कर ही मैंने तुमको पाया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
ऐसे तो सखासखी हो जाते हैं सहस्त्रों पर, न पा पाते भार्या का स्थान ह्रदय में
अर्धांगिनी हो तुम मेरी, सारे जग से लड़कर जीतने का बल तुम्हीं से तो पाया हैं
तारणहार रूप ले कर धरा पर मानव का, आया था मैं सखा ही बनकर गोकुल में
मैं तो बसता ह्रदय में सबके, फिर किसने इनको मेरे चरणों की दासी कहलवाया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
अब भी संशय न पालों मन में प्रिय और मनाओ फागुन को हंसकर रंग खेलकर
रंगों के इस पर्व ने न जाने हर युग में कितनें रूठों को अपनों से मिलवाया है
अब ये जानो की रंग रास मैं खेलूं तुम्हारे संग या फिर खेलूं गोपियों के मध्य
पन्ढरपुर विट्ठल हो या तिरुमाला धाम, रुक्मणी को ही मेरे वामअंग पर बैठाया है
लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
मन रुक्मणी का विह्वल हो भर आया है
अब भी कोई शंका हो प्रिय तो पूछों, तुम्हे पूछने का है अधिकार सबसे ज्यादा
सुनकर इन वचनों को प्रभु के श्री मुख से रुक्मणी का सारा संशय मिट पाया है
जानता था की हो रही है उथल पुथल तुम्हारे मन में विचारों की जग के कारण
आवश्यक है संशय दूर करना मन का प्रिय इसलिए मैंने तुम्हे ये सब बतलाया है
इस बार मन रुक्मणी का प्रसन्नता से भर आया है
यह लो फिर एक बार फागुन लौटकर आया है
राजीव सिन्हा ‘अनजाना’
तिरुवनंतपुरम