तेरा मेरा रिश्ता जिसका कोई नाम तो नहीं है,
बेनाम है पर बदनाम भी नहीं है
कुछ अनजान सा है रिश्ता अपना,
जो प्यारा सबसे न्यारा सा है
सूझबूझ जिसकी बढ़िया,
अपनेपन की है कड़ियाँ
मनमीत कहें या मनजीत कहें उसे,
समझ नहीं आता क्या क्या कहें उसे
उससे एक अनोखा रिश्ता,
जिसमें कभी न स्वार्थ दिखता।
शब्दों की डोर से इक ऐसा रिश्ता बनाते हैं,
जिसमें बिना जान पहचान के भी जज़्बात समझ आते हैं
ख़यालात अनजान होकर भी कई दफ़ा मिल जाते हैं,
बेगाने लोग भी अपने हो जाते हैं
तब याद मुझको राजेश खन्ना साहब के डायलॉग बड़े आते हैं,
कि अपनेपन के लिए किसी को अपना बनाना ज़रूरी नहीं
बल्कि जिससे भी अपनापन मिले समझो वही अपना है
यही सोचकर अनकहा अनजाना सा रिश्ता बनाते हैं।
अतुल पाठक ‘धैर्य’
हाथरस, उत्तर प्रदेश