डॉ निशा अग्रवाल
जयपुर, राजस्थान
चला है दौर हवाओं का ऐसा,
कि फितरत भी रंग बदलने लगी है
बनावटी की दुनियां में आज ,
असली चमक भी खोने लगी है
प्रोफाइल में जितनी रंगीन दिखती है जिंदगी,
हकीकत में वो बेरंग होने लगी है
नकली चेहरे के पीछे छुपा रूप असली,
न जाने कितने फिल्टर से सजने लगी है
सफल होता राह में अगर कोई अपना ,
तो जलन चिढ़न की बदबू यहां फैलने लगी है
निशां बढ़ते कदमों के दिखते यहां जब,
अपनों से रुसवाई होने लगी है
कैसा ये जमाना है,कैसी ये नगरी,
डगर भी इसकी अनजान सी लगने लगी है
न कोई अपना है, ना ही पराया,
अपनी छाया भी बेगानी लगने लगी है