चित्रा पंवार
नित कर्म में लीन श्रम साधिकाएं
घूम रही हैं सर पर लादे
खुद से कई गुना ज्यादा बोझ
झुण्ड बना बतियाती अपना सुख-दुख
बना रही हैं पत्थरों में रास्ते
मिटा रही हैं दिन रात का भेद
इनके अथक कदमों में समाई है
हजार अश्वों की शक्ति
दिमाग पर हावी है
कुछ कर गुजरने का जुनून
प्रलय से जीतती, सृजन करती
समय को मात देती जिजीविषा की मूरतें
एक जैसी ही तो हैं
ये चींटियां, ये औरतें!