श्रीमती सुमन सोलंकी
धवल है धरा धाम धवल है हमारी यह आस्था
छिटकी है चांदनी जैसे बिखरा रजत चहुं ओर है
अचंभित ओ विस्मित हूं हे विश्वरूपा
अद्भुत है रूप अद्भुत है यह नजारा
स्वर्गिक यह अनुभूति जो इस धरा पर उतरी
या निद्रा में स्वप्न की केवल है मेरी कल्पना
भूमंडल की इस आभा के आगे
स्वयं देवता भी दिग्भ्रमित खड़े
लौट जाएं देवलोक या यहीं पर वास करें,
यह सारी रचना है मेरी कल्पना से परे
है यह अभिलाषा मेरी जाऊं दरस को तेरे
मनोहरी, करो स्वीकार नमन औ ‘सुमन’ हे बैरागी