स्त्री तो हूँ मैं
पर जाने क्यों
मुझे मीरा, राधा, सीता, द्रौपदी, उर्मिला
गांधारी, मंदोदरी बनने में तनिक भी रुचि नहीं है
मुझमें गार्गी सा तेज हो
मणिकर्णिका सा ओज हो
यह रास्ता बेहतर है
उस रास्ते से जिसमें आपको ख़ुद को
पूरी तरह स्वाहा करना पड़ता है
पूरी तरह होम करना पड़ता है
और इस अंतिम त्याग के बाद भी
सत्य आप तक पहुँच ही नहीं पाता
वो दरवाजे से ही उल्टे पांव लौट जाता है
हे परमपिता परमेश्वर
तुम मुझे बुद्ध होने का ही आशीर्वाद दो
क्योंकि जाग्रत बुद्ध वास्तव में
हर लिंग-भेद से ऊपर है
तुम मुझे मुक्ति के मार्ग पर छोड़ दो
मैं ख़ुद भटकते-भटकते ही सही
एक दिन
महापरिनिर्वाण को प्राप्त कर लूँगी
वो भी बुद्ध से कहीं बेहतर तरीक़े से
बिना आधी रात को चोर दरवाजे से निकल कर
बिना अपने साथी और दुधमुँहे बच्चे को छोड़े
और उन्हें मर्मांतक पीड़ा पहुंचाए
मैं शांतिपूर्ण तरीक़े से
अपनी यात्रा तय कर
मोक्ष तक पहुंच ही जाऊंगी
क्योंकि
जगतजननी स्त्री हूँ मैं
मेरी क्षमता बुद्ध से भी अधिक है
क्योंकि बुद्ध को भी
मैंने ही जन्म दिया है
और मुक्ति पर मेरा भी उतना ही हक़ है
जितना कि बुद्ध का,
ध्यान में पड़ी स्त्री एक दुर्लभ दृश्य है
और स्त्री की मुक्ति
इस संसार की धरोहर है
स्नेहा किरण
कवयित्री व सामाजिक कार्यकर्ता
अररिया, बिहार