अनामिका सिंह
मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश
पिता खेतों की मेड़ जैसे थे
मैं मेड पर छलांगें मारते हुए चलती
हरी नर्म दूब का स्पर्श
ठीक-ठीक पिता के हाथों जैसा
मैंने कभी नहीं देखा उन्हें
बैलों के झुरमुट के पीछे चलते हुए
या मक्का के खेत पर बने वितान पर बैठे हुए चील कौवे उड़ाते हुए
या फावड़े को लटकाए कांधे पर
बहते पानी के धारे मोड़ते हुए
जीवन की एक लंबी अवधि में
वे दबे रहे
सरकारी फाइलों के नीचे
और बाँटते रहे लोगों को
सरकारी योजनाओं के लाभ
लेकिन धरती मां की अनुगृहिता
उनके रक्त में थी
यह बात कितने वर्षों बाद हमें समझ आई
नगरों के सरकारी भवनों में बीती उनकी आधी जिंदगी
लेकिन
गांव घर चौपाल और फसलों से
शुरू होती हुई उनकी बात
शहरी जीवन की चकाचौंध तक
नहीं पहुंची कभी
अब जबकि पिता नहीं है
मैं देख पाती हूं हर फसल में पिता का चेहरा
और भर जाती हूं ठीक वैसी ही खुशी से